रविवार, 22 मई 2011

विश्व धरोहर घोषित किये जाने के बावजूद निरीह वन्य जीवों के शिकार

बैलपड़ाव:संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर पिछला साल अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष के रूप में मनाया गया। यह दीगर बात है कि जब प्रकृति के अस्तित्व पर संकट गहराता है तभी उसके संरक्षण की कवायद शुरू हो जाती है। यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने पुन: इस वर्ष को अंतर्राष्ट्रीय वानिकी वर्ष घोषित किया है। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो यहां की विश्व धरोहर प्रजातियां अनायास ही काल कवलित हो रही हैं। पिछले एक साल के भीतर मानव-वन्यजीव संघर्ष की जो विभीषिका सामने आयी है, उससे वन महकमे के साथ-साथ वन्य जीव संगठनों की परेशानी पर भी बल पड़ गये हैं। विशेषज्ञों को वन्य जीवों के वासस्थल एवं भोजन श्रृंखला चरमराने के संकेत मिले हैँ, जिसका कारण प्रे-बेस पोचिंग एवं बायोटिक प्रेशर माना जा रहा है। उधर शिकारियों व तस्करों का जयामय शेष अलग नासूर साबित हुआ है। प्रकृति के संरक्षण का सीधा सा नियम है कि यदि जैव विविधता की शीर्ष प्रजातियां संरक्षित हों तो उनकी निचली प्रजातियां स्वत: ही संरक्षित रहती है। यहां तो शीर्ष प्रजातियों को जान के लाले पड़े हैं। विश्व धरोहर घोषित किये जाने के बावजूद निरीह वन्य जीवों के शिकार व तस्करी का सिलसिला थम नहीं रहा है। कोसी कारीडोर प्रोजेक्ट पर काम कर रहे विश्व प्रकृति निधि भारत के समन्वयक डा. केडी काण्डपाल का कहना है कि तराई आर्क लैण्डस्केप के महत्वपूर्ण व संवेदनशील कारीडोर बाधित पड़े हैं†ा विश्व की स्थलीय जैव विविधता की सबसे बड़ी प्रजाति तीन दशक से अलग-अलग सीमित स्थानों पर फंसी है। इससे बड़ा ज्वलंत मुद्दा और क्या हो सकता है। मानव- वन्य जीव संघर्ष की विभीषिका एवं हाथियों का उत्पात इसकी ताजा बानगी है। डा. काण्डपाल ने बताया कि जैव विविधता को संरक्षित रखने के लिए कारीडोर का क्रियात्मक होना जरूरी है। नेचर इंटरप्रिटेनर राजेश भट्ट बताते हैं कि कीटनाशकों एवं उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग तथा नम भूमि क्षेत्रों की कमी से बड़ी संख्या में तितलिया व मधुमक्खी समेत छोटे-बड़े जीव नष्ट हो रहे हैं। जल संरक्षण करने वाली वनस्पति की कमी से जलस्त्रोत सूख चले हैं। ऊंचे सूखे वृक्षों के अभाव में गिद्ध, चील, बाज समेत अनेक पक्षियों के वासस्थल छिन गये हैं। इमारती प्रकाष्ठ एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण साल प्रजाति में सिर्फ प्राकृतिक पुनरोत्पादन होता है किन्तु अधिकांश भूभाग आग की चपेट में आने से पुनरोत्पादन का सिलसिला थम सा गया है। हैरत की बात यह है कि पिछले वर्ष कई स्थानों पर साल बौराया ही नहीं। इस महत्वपूर्ण प्रजाति को बचाने के लिए वन महकमा प्रोजेक्ट एएनआर चलाकर भरपाई की कवायद में जुटा है। उधर वनों की गुणवत्ता घटने तथा लैन्टाना व पार्थेनियम वनस्पति का आच्छादन बढ़ने से टाइगर हैविटाट यूनिट पर सीधा असर पड़ा है। अब भरपाई के चाहे जितने प्रयास किये जाये लेकिन भावी पीढ़ी को तो इसकी बड़ी कीमत चुकानी ही पड़ेगी।

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